घीसा मोहे सतगुरु ऐसे मिले, जैसे दरिया नीर ।
मन की तपन बुझायके, निर्मल किया शरीर ।।
अविनाशी कु मारण चाल्या, वो जीता नंबरदारा |
मिली नजर में नजर धणी से, पाप भस्म होया सारा |
घिसा रूप में दर्शया करतारा, दिव्य दृष्टि खुल जाती है |
सतगुरु अपना साथी है, सतगुरु हरदम साथी है ||
जीता कूं तो गम नहीं, ना कुछ मोल न तोल ।
शरणै आये दास कूं, सुनो घीसा राम के बोल ॥८२॥
जीता घीसा राम का, ज्यूं मेहन्दी का पात ।।
साध संगत में रगड़़ कै राच्यों हर के हाथ ॥८३॥
जीता तो खोया गया, के मुझे ले गया राम ।
मैं तो अब रहता नहीं, मिटे हाड़ तन चाम ॥८४॥
जीता निन्दक साध का, मैल सभी धो दीन ।
नित उठ के बिनती करै मोल कछु नहीं लीन ॥८५॥
जीता साधू आया राम का, बिरला बूझे बात ।
स्याणा आया भूत का, भूल्या जग फिरै साथ ॥८६॥
जीता सुन सुन ज्ञान कबीर का, उतरे हंस अनेक ।
कर्मो बंधे रह गये, बहुते बिना विवेक ॥८७॥
जीता घीसा राम कबीर का, सुनिये भाण्डे दोय ।
जो कोई जौहरी शब्द का, सत एक लख लोय ॥८८॥
जीता मंगता जुगों का, घीसा राम की साथ ।
भिक्षा दई ज्ञान की, सत शब्द निज बात ॥८९॥
जीता कूं साहिब मिले, ज्ञान किया प्रकाश ।
सत शब्द स्यूं खेलते सन्तों ही के पास ॥९०॥
जीता तन मन धन सब झोंक कै, कर्म दिये सब भून ।
सो नर चाले मुक्ति कूं, उन कूं रोके कौन ॥९२॥
जीता सतगुरु की सोधी नही, कहता साख बनाय ।
बिन सतगुरु लाग्या नही, मुक्ति होण का दाव ॥९३॥
जीता सतगुरु शरणै आय कै, और क्या करे उपाय ।
भजन बन्दगी में रहै, जब लागे तेरा दाव ॥९४॥
जीता सतगुरु तो चीन्हा नही, मन में करे उपाय ।
जैसे कोल्हू खरीद कै, रहे हजारी पछताय ॥९५॥
जीता ढूंदू मेरा राम है, जीता कू लिया ढूंढ ।
सिर मुंडे क्या होत है, मन मेरा लिया मूंड ॥९६॥
जीता कूं सतगुरू मिले, अटल रहे भरपूर ।
भर्म कर्म सब मेट कै, दासों कूं मिला हजूर ॥९७॥
जीता घीसा संत का, गुरू बताया पंथ ।
खोज्या जा सो खोज ले, सभी इसी में तंत ॥९८॥
जीता ज्ञान ध्यान की रसत है, सतगुरु रहे पहुंचाय ।
धोखा सब कूं खात है, कोई जन धोखे कूं खाय ॥९९॥
जीता ढूंढत ढूंढत जुग गया, छिन इक का था काम ।
गुरु गोविन्द कृपा करी, घट में पाया राम।।१०१।।
जीता तीर्थ ब्रत भटकत फिरै, कहीं न पाया राम ।
हृदय माहीं उठ मिले, सकल तुम्हारे काम ॥९०२॥
जीता सूरा सोई भरपूर है, भयो नाम में चूर ।
घीसा राम कृपा करी, सांई मिले हजूर ॥९०३॥