अक्टूबर तालिक 2025
October Tableघिसा साहेब
(वाणी)॥ ॥(वाणी)-॥
गुरु ने मोहे झीनी बस्तु लखाई नाजुक राह बोझ सिर भारा हलके पार लँघाई पार उतरके फिर ना आये आवागमन मिटाई झीनी वस्तु भेद ना पाया निर्मल होकर पाई सुरत सिंधु पै आसन माडा हर हर होती आई ब्रह्म आप पै तपसी तापें आठूँ पहर लडाई ज्ञान शब्द का ख़ंजर पकड़ा दुईमत मार हटाई 'घीसा' सन्त चेत ले मन में यहाँ रहने का नाहीं चला चली का खेल बावरे तू क्यूँ लेत बुराई
अब चली पिया के देश मगन भई मद माती पिया तुम बिन बहुत ख़्वार भरम में बह जाती मेरे नैनो से ढल आया नीर उमग आई मेरी छाती भागी बहुतक रूप बनाम अकल मोरी सब थाकी अब तुही-तुही घट मांहि नहीं कोई सग साथी जब लई पिया की राह छूट गए सब नाती पिया तुम लग मेरी अरदास अर्ज सुनो मेरी पाती मागी पिया की निर्गुण सेज रैन दिन सुख पाती कहते 'घीसा' सन्त रूप में मिल जाती
मन तू ऐसा ब्याह करा रे तेरी सहज भक्ति हो जारे सातों वान समझ के न्हाले निभय ढोल बजा रे दया की मेहंदी प्रेम का कंगन शील का सेहरा बँधा रे पाँच पचीसों चढ़े बराती सत का मोहर बँधा रे सुरत सुहागन मिली पिया से पर घर काहे कूँ जारे 'घीसा' सन्त कहें सुन साधो आवागमन मिटा रे
हरदम याद करो साहेब ने झूठा मर्म जजाला है हस्ती-घोडे़ रथ-पालकी यूँ धन माल असारा है राम नाम धन मोटा साधो जिसका सकल पसारा है माया मोह दो पाट जबर हैं चून पिसा जग सारा है सतगुरु शब्द क़ौल दा साँचा लगा रहा सोई सारा है जड़ चेतन में आप विराजें रूप-रेख से न्यारा है ऐसी भूल पड़ी म्हारे सतगुरु पावे कोई पावन हारा है घर तेरे में लाल अमोलक बिच में परदा भारा है सतगुरु शब्द महल बना साँचा हो रहा अखंड उजाला है सतगुरु शरण बहुत सुख पाये निश्चय नाम अधारा है 'घीसा' सन्त पंथ में धाये छूटा भर्म जजाला है
होरी खेल पिया सँग प्यारी तू तो सब रंग ले रही न्यारी पाँच पचीसों होली खेलत हैं नगर धूम भई भारी प्रेम रंग का पड़त फुवारा रोम रोम रँग डारी इडा पिंगला देख तमाशा अर्घ उर्घ भई त्यारी सुन्न महल में बाजे बाजें अवगत की गति न्यारी त्रिकुटी महल में ध्यान धरत है दर्शा पुरूष अपारी सुरत सिन्धु पर होरी हो रही लिख रहा फूल हजारी सभी सुहागन मिल होरी खेलें जीवन की मतवारी 'घीसा' सन्त खेल रहे होरी कुंज गली निज न्यारी
देखो मेरे वाचा सन्त करें बादशाही दया शहर और शब्द मुल्क है समझ की गलियाँ भाई निश्चय नाम तख़्त पै बैठे रजा दाम ले याँही सत की तोप ज्ञान का गोला प्रीत को चकमक लाई प्रेम सिपाही लड़ने लागे भरम की बुरजी ढाई पाँच पचीसों पकड़ मँगाये भेजा शील सिपाही क्षमा फंद में जाल दिये हैं मुर्दे जिंदे याँही काया नगर का राज करत हैं मुल्क बहुत सा याँही तीन लोक के नाथ विराजें सीधी विरले न पाई निर्भय राज दिया सतगुरु ने हरि हरि होती आई 'घीसा' सन्त पै कृपा हो रही अटल बादशाही पाई
करता कर्म रेख से न्यारा ना वो आवै गर्भ मास में नहीं घरे औतारा ब्रह्म वेद भेद नहीं पावै पढ़-पढ़ मरें लवारा ना वो मरै नहीं वो मारै सब घट पालनहार 'घीसा' सन्त कहे सुन साधो निर्गुण धनी हमारा
ऊँचे ऊपर ऊँचा ठाम उस ऊँचा पर ऊँचा गाम उस ऊँचे पर ऊँचा नाम उस से ऊँचा और न घाम उस ऊँचे ने जाने सोय उस ऊँचे पर पहुँचा होय 'घीसा' सन्त महल है ऊँचा पहुँचे सन्त हरीजन सूचा
साधो अवगत अलेख गाया काया नगर में पाया शील कमान समझ का तरकश सत्य का तीर चढ़ाया निर्भय नाम का लगा मोरचा मन का भरम उड़ाया पाँच पचीसों नगर बसाया मन राजा समझाया तेरे शहर में पाँच चोरटे सतगुरु भेद लखाया ऊँचो नीचो सेरी बाके रूप-रेख नहिं काया इँगला पिंगला देख तमाशा सुसमन आन समाया निर्भय होय अभय पद चीन्हा नाथ निरंजन गाया 'घीसा' सन्त पै कृपा हो रही सहजै सहज समाया
ऊँ संतो कंठ कँवल में खोजो भाई यहाँ ही कहिए तेरा सांई कंठ कँवल जब खोज्या प्यारा सूझन लागा सृजनहारा ज्ञान शब्द की कुंजी पाई जब जोगी ने जुगत कमाई भरम गढ़ का सोड़ा ताला घट पिंड में हुआ उजाला रूम-रूम में ख़ुशी बहारा अमी बूँद का छुटा फुवारा त्रिवेणी में रंग लगाया जामें फूल हजारा पाया जा करण तू भटके भाई सो कहिए तेरे तन माँही ऐसी मूल बहुत सी डारी आशा तृष्णा हो रही भारी इन कूँ मार अदल बैठाया सुरत निरत का मेल मिलाया गगन मंडल का रस्ता पाया गुप्त भेद सतगुरु समझाया सुन्न महल में दिये दिखाई यो हंसा है तेरा भाई तेरी आवागवन सहज मिटाई निर्भय पद में रहा समाई पद पाया पूरा भया मिली नूर में नूर सतगुरु की कृपा भई 'घीसा' सन्त हजूर कहन सुनन की गम नहीं घर-घर रहा भरपूर
योगेश्वर धीरज रहना मेरा भाई कर ले नाम की कमाई दया का दूध प्रेम का जामन ज्ञान की रई फिराई मय माखन जब खाया नाम का और स्वाद कुछ नाहौं धीरज आसन लगा समझ का पाप पुण्य कुछ नाँही अंदर वर्षा होत अमी की रोम-रोम रंग लाई सम्मुख होवे जो नर खेलैं शूरे सन्त सिपाही फनी-फनी निर्भय हो खेले आवागमन मिठाई बुरी-भली जिनके नहिं व्यापै एक नजर में आई साक्षात में ब्रह्म रूप है भरम रहा कुछ नाहीं सुरत पिया का एक घर मेला गुरु चेला भी नाहीं 'घीसा' सन्त मगन हो बैठे घट में रहे समाई
भजिये पार ब्रह्म रंकारा। अगम अलेख अपार अकथ औ अकह मिला औ न्यारा। निराकार अविनाशी निर्गुन जो सब विश्व पसारा। सो भक्तन संग सरगुन बनिकै संग करत खेलवारा। सतगुरु करि जप भेद जानि लो नाम खुलै एकतारा।५। सुर मुनि मिलैं सुनो घट अनहद अमी पियो निशि वारा। ध्यान परकाश दसा लय जावो कर्म होंय जरि छारा। नागिन जगै चक्र सब बेधैं कमलन होय पसारा। उड़ै तरंग मस्त हो तन मन नैन चलै जल धारा। सिया राम प्रिय श्याम रमा हरि सन्मुख लो दीदारा।१०। ईड़ा पिंगला जाय एक ह्वै तब हो सुखमन प्यारा। विहंग मार्ग से चलि कै प्राणी निज घर देखै सारा। पांचों तत्वन के रंग दर्शैं सुन्दर हो झलकारा। चारों तन जब सोधन होवैं टूटै द्वैत केंवारा। निज तन अमित सामने आवै चमकै रवि शशि तारा।१५। माया मृत्यु काल सब यमगण लखि कै खांय पछारा। सूरति शब्द का मारग यह है जियतै करत सँभारा। नर नारी सुन चेत जाव लगि मानो वचन हमारा। अन्त त्यागि तन चढ़ सिंहासन बैठो भवन मंझारा। घीसा दास कहैं तब जान्यो मिट्यो जगत का भारा।२०।
अब चली पिया के देश मगन भई मद माती पिया तुम बिन बहुत ख़्वार भरम में बह जाती मेरे नैनो से ढल आया नीर उमग आई मेरी छाती भागी बहुतक रूप बनाम अकल मोरी सब थाकी अब तुही-तुही घट मांहि नहीं कोई सग साथी जब लई पिया की राह छूट गए सब नाती पिया तुम लग मेरी अरदास अर्ज सुनो मेरी पाती मागी पिया की निर्गुण सेज रैन दिन सुख पाती कहते 'घीसा' सन्त रूप में मिल जाती
ऊँचे ऊपर ऊँचा ठाम उस ऊँचा पर ऊँचा गाम उस ऊँचे पर ऊँचा नाम उस से ऊँचा और न घाम उस ऊँचे ने जाने सोय उस ऊँचे पर पहुँचा होय 'घीसा' सन्त महल है ऊँचा पहुँचे सन्त हरीजन सूचा
ऊँ संतो कंठ कँवल में खोजो भाई यहाँ ही कहिए तेरा सांई कंठ कँवल जब खोज्या प्यारा सूझन लागा सृजनहारा ज्ञान शब्द की कुंजी पाई जब जोगी ने जुगत कमाई भरम गढ़ का सोड़ा ताला घट पिंड में हुआ उजाला रूम-रूम में ख़ुशी बहारा अमी बूँद का छुटा फुवारा त्रिवेणी में रंग लगाया जामें फूल हजारा पाया जा करण तू भटके भाई सो कहिए तेरे तन माँही ऐसी मूल बहुत सी डारी आशा तृष्णा हो रही भारी इन कूँ मार अदल बैठाया सुरत निरत का मेल मिलाया गगन मंडल का रस्ता पाया गुप्त भेद सतगुरु समझाया सुन्न महल में दिये दिखाई यो हंसा है तेरा भाई तेरी आवागवन सहज मिटाई निर्भय पद में रहा समाई पद पाया पूरा भया मिली नूर में नूर सतगुरु की कृपा भई 'घीसा' सन्त हजूर कहन सुनन की गम नहीं घर-घर रहा भरपूर
होरी खेल पिया सँग प्यारी तू तो सब रंग ले रही न्यारी पाँच पचीसों होली खेलत हैं नगर धूम भई भारी प्रेम रंग का पड़त फुवारा रोम रोम रँग डारी इडा पिंगला देख तमाशा अर्घ उर्घ भई त्यारी सुन्न महल में बाजे बाजें अवगत की गति न्यारी त्रिकुटी महल में ध्यान धरत है दर्शा पुरूष अपारी सुरत सिन्धु पर होरी हो रही लिख रहा फूल हजारी सभी सुहागन मिल होरी खेलें जीवन की मतवारी 'घीसा' सन्त खेल रहे होरी कुंज गली निज न्यारी
हाथ जोड़ मैं खड़ा हुआ हूँ शरण आप की पड़ा हुआ हूँ सभी तरह से झड़ा हुआ हूँ नहीं बनता है कुछ काम मैं मतिमन्द मूढ अज्ञानी गति आप की जाये ना जानी सुन लो मेरी राम कहानी तुम्हारे बिन सरता ना काम माया मोह मनहिं भरमावें कामदेव बस में ना आवे बिना तुम्हारे कौन बचावे बिसरो मत अवचल राम दुनिया दौलत तुम हो सारी तुम हो मेरे मूल पसारी दया करो प्रभु दीन हितकारी सुध लो मेरी आठों याम प्रेमरूप में तुम ही आये स्वामी अवगतदास कहाये ‘अचलदास’ को शरण निभाओ दो प्रभु अपना नाम
ऊँ संतो कंठ कँवल में खोजो भाई यहाँ ही कहिए तेरा सांई कंठ कँवल जब खोज्या प्यारा सूझन लागा सृजनहारा ज्ञान शब्द की कुंजी पाई जब जोगी ने जुगत कमाई भरम गढ़ का सोड़ा ताला घट पिंड में हुआ उजाला रूम-रूम में ख़ुशी बहारा अमी बूँद का छुटा फुवारा त्रिवेणी में रंग लगाया जामें फूल हजारा पाया जा करण तू भटके भाई सो कहिए तेरे तन माँही ऐसी मूल बहुत सी डारी आशा तृष्णा हो रही भारी इन कूँ मार अदल बैठाया सुरत निरत का मेल मिलाया गगन मंडल का रस्ता पाया गुप्त भेद सतगुरु समझाया सुन्न महल में दिये दिखाई यो हंसा है तेरा भाई तेरी आवागवन सहज मिटाई निर्भय पद में रहा समाई पद पाया पूरा भया मिली नूर में नूर सतगुरु की कृपा भई 'घीसा' सन्त हजूर कहन सुनन की गम नहीं घर-घर रहा भरपूर
दया करो दीनानाथ मैं शरणागत थारा हो पापी पतित भी होते आये सब के काज सुधरते आये जो जी थारे द्वारे आये किया उनका निस्तारा हो मैं भी तो पापी पतित खड़ा क्यूँ ना आप की नजर पड़ा ऐसा क्या बोदा कर्म अड़ा दया करो करतारा हो बंदी छोड़ अभय अविनाशी काटो जन्म मरण की फाँसी साहब कबीर आये थे काशी दुखी देख संसारा हो संशय शोक को टारन हारे दीनों के तुम रखवारा हो मैं मूरख हूँ थारे सहारे झूठा कुटुम्ब परिवारा हो घीसा साहेब पार लगाओ उलझी हुई आ सुलझाओ 'अचलदास' की आन बचाओ नाव पड़ी मझधारा हो
मनवा काहे कूँ डामाडोल लगे के लाखों मोल बतावें डिगे पर यों ही धक्के खावें सुनते लाखों बोल मनवा काहे कूँ डामाडोल सबसे मीठा बोल जगत में मत मा काँटे बोवै पथ में पूरा बन कमती मत तोल मनवा काहे कूँ डामाडोल उल्टा नाम जपा जग जाना बालमीक भये ब्रह्म समाना जमे के लाखों मोल मनवा काहे कूँ डामाडोल बचन भरे थे गर्भवास में अब फिरता क्यूँ विषय आस में झूठे तेरे कौल मनवा काहे कूँ डामाडोल ध्यान लगा सतगुरु के चरण में ना आयेगा जनम-मरन में अचल सत्तनाम मुख बोल मनवा काहे कूँ डामाडोल